Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


वैश्या की लड़की


छाया कट-सी गई। अपमान उसके चेहरे पर तड़प उठा। किंतु वह कुछ नहीं बोली। वह जानती थी कि कुछ बोलकर अपना अहित छोड़कर वह हित नहीं कर सकती। अंत तक अपने इस कार्य के लिए वह विनम्र भाव से प्रमोद से क्षमा माँगती रही और इस बात का आश्यासन देती रही अब उससे ऐसी भूल कभी न होगी।

किंतु प्रमोद अपने को शांत न कर सके, वे उन्मत्त की तरह कभी टहलते और कभी चुपचाप लेट जाते। अंत में कुछ देर तक इधर-उधर टहलकर वे छाया से बोले, 'छाया, मैं तो मिस्टर अग्रवाल के घर जा रहा हूँ; वहाँ मुझे कुछ शान्ति मिलती है। शान्ता के पास पहुँचकर मैं एक प्रकार के सुख और शीतलता का अनुभव करता हूँ। वहाँ मैं सारी दु्श्चिंताओं से क्षण भर के लिए अपने आपको मुक्त पाता हूँ। वहाँ मैं जितना अधिक रहूँ, रहने दिया करो। तुम्हारे पास मुझे सिवा ग्लानि और क्षोभ के कुछ नहीं मिलता। तुम्हारे पास मैं शांति नहीं किंतु अशांति ही अधिक पाता हूँ, शीतलता नहीं, मुझे जलन होती है। और यह सच तो है छाया, कि अब मैं तुमसे घृणा करने लगा हूँ। तुम्हारी माँ के घर की दासी का आना-जाना मैं संदेह की दृष्टि से देखता हूँ। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रह गया है। अब तुम मेरे पीछे मत पड़ो । तुम्हें स्वतंत्र किए देता हूँ। तुम चाहो तो अपनी माँ के पास जाकर सुख से रह सकती हो। मैंने तो तुम्हारे साथ इतने दिनों तक रहकर भर पाया; बस अब और अधिक मुझे अपने साथ रहने के लिए विवश मत करो। रोने-धोने का मुझ पर कोई असर नहीं होगा। जहाँ मैं थोड़ी शांति पाता हूँ, वहाँ जाने दो' कहते हुए प्रमोद बाहर चले गए।

छाया वहीं धरती पर लोटकर फूट-फूटकर रोने लगी। आज उसे मालूम हुआ कि वह कितनी असहाय, कितनी विवश, और कितनी दुर्बल है। संसार उसे शून्य-सा होता हुआ जान पड़ा। उसे ऐसा लगता था, जैसे उसका सर्वस्व, कोई बरबस उससे छीने लिए जाता है। वह चीख पड़ी और रोते-रोते बेहोश हो गई। पड़ोस की कुछ स्त्रियों ने आकर उसके मुँह पर पानी के छींटे दिए। छाया उठ बैठी। उस दिन वह भोजन न कर सकी। इस प्रकार विवाह की पहली वर्षगाँठ संपन्न हुई।

प्रमोद बहुत रात गए घर लौटे, छाया तब तक सोई न थी। वह अब भी रो रही थी। छाया की अवस्था पर प्रमोद को दया आ गई, उन्हीं की ओर से इस संग्राम की संधि का प्रस्ताव पेश हुआ। सुलह हुई और दोनों ने साथ भोजन किया। रात अच्छी कटी किंतु सबेरे से फिर 'वही रफ्तार बेढंगी, जो पहिले थी सो अब भी है,' आरंभ हो गई। प्रमोद फिर कुछ तेज बातें कह के चल पड़े और छाया रोती रह गई।

राजरानी अपनी पुत्री की दुरवस्था के विषय में प्रतिदिन सुना करती थी। उसने फिर अंतिम शस्त्र फेंका, दासी से कहला भेजा, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। छाया चाहे तो आकर मेरे साथ सुख से रह सकती है; यह इतनी बड़ी कोठी और लाखों की संपत्ति उसी की है। वह इतना कष्ट क्यों झेल रही है; अभी उसकी माँ तो जीवित है, इतना तो सोचे।
छाया ने उसके उत्तर में माँ को कहला भेजा, मेरी नसों में सीता और सावित्री का खून दौड़ रहा है। मैं आर्य महिला हूँ, मैं अपने पति के चरणों को छोड़कर नहीं जा सकती। सीता और सावित्री का महान्‌ आदर्श मुझसे कहता है कि पति ही मेरा परमेश्वर है, पति को छोड़कर स्त्री की कहीं दूसरी जगह गति नहीं हो सकती। उनसे कहना कि मेरी माँ तो मर चुकी है। मैं उन्हें अपनी माँ नहीं समझती; मेरी माँ होती तो मेरी ही तरह पवित्र जीवन बिताती।-
इस उत्तर से राजरानी के स्वाभिमान को धक्का-सा लगा। उसने सोचा अभी और ठोकरें खाने के बाद उसकी अक्ल ठिकाने आवेगी, तब अपने आप चली आवेगी।

जैसे ही दासी घर से बाहर निकली, प्रमोद ने घर में प्रवेश किया। वह सिर से पैर तक जल उठे। घर के अंदर जाते ही उन्होंने बेकसूर ही सारा क्रोध छाया पर उतार दिया । छाया के हर छोटे-छोटे कार्य को अब वे संदेह की दृष्टि से देखते थे।

उन्हें उसके ऊपर विश्वास न रह गया था। उसकी हर एक भावभंगी में उन्हें कुछ छल, कुछ धोखा दृष्टिगोचर होता था। उन्होंने दासी के आने का कारण पूछा और छाया के सच-सच कह देने पर भी वे विश्वास न कर सके । क्रोध में उन्मत्त-से, हो रहे थे, क्रोध के साथ बोले, छाया तुम जाओ, जाओ अपनी माँ के साथ रहो; मेरा पिंड छोड़ दो, तुम्हारे साथ रहने से मुझे कष्ट भर होता है, और कुछ नहीं। मैं अपने आप तो तुम्हें छोड़ नहीं सकता। तुम अपने आप ही अपनी माँ के पास चल जाओ तो मेरे ऊपर किसी प्रकार की जिम्मेदारी न रह जाएगी। मेरा कहना मानो, मुझे इस बंधन से मुक्त कर दो छाया! तुम भी सुख से रह सकोगी; मैं भी सुख से रहूँगा।
छाया ये बातें चुपचाप सुन रही थी। उसकी आँखों से आँसू बहते जाते थे। उसने हिचकियों के साथ कहा, प्रमोद तुम, बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो मैं कर दूँगी।

व्यंग्य और उपेक्षा की हँसी के साथ प्रमोद ने कहा, हाँ यही चाहता हूँ छाया! मुझे बंधन से मुक्त कर दो। जिस दिन तुम मेरी इतनी बात मान लोगी मुझे बड़ी शांति मिलेगी।

शाम को घर लौटकर प्रमोद ने देखा, छाया अपने जीवन की अंतिम साँसें ले रही थी। उसकी आँखे कदाचित्‌ एक बार प्रमोद को देख लेने की प्रतीक्षा में खुली थीं। प्रमोद के आते ही एक हिचकी के साथ उसकी आँखें सदा के लिए बंद हो गईं। प्रमोद पागलों की तरह छाया की लाश पर गिर पड़े।

आज भी प्रमोद नन्‍हीं-सी पोटली, जिसमें छाया का चित्र और उसका अंतिम पत्र है, बड़ी सावधानी से हृदय से लगाए हुए नगर के सुनसान स्थानों में या खँडहरों में देखे जाते हैं। वे न कभी किसी से बोलते हैं और न किसी की बात का उत्तर देते हैं। हाँ, अपने आप ही वे कभी-कभी एक विचित्र प्रकार की आवाज से कुछ कहते हैं जिसको बस वे ही समझते हैं और कोई नहीं।

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